Lesson-6 हिमालय से, कवयित्री- महादेवी वर्मा

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) Lesson-6  हिमालय से, कवयित्री- महादेवी वर्मा [ संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्यगत सौन्दर्य, शब्दार्थ] exam oriented.Part-1


✍Chapter-6✍

🏔हिमालय से🏔

🏞महादेवी वर्मा🏞

🪐हिंदी(काव्य-खण्ड)🪐

🗻Part-1🗻


हिमालय से

प्रश्न 1.
हे चिर महान् ! 
यह स्वर्णरश्मि छु श्वेत भाल, 
बरसा जाती रंगीन हासः 
सेली बनता है इन्द्रधनुष, 
परिमल मल मल जाता बतास ! 
पर रागहीन तू हिमनिधान !

संदर्भ:- प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हिन्दी की महान् कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'सान्ध्यगीत' नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'काव्य-खण्ड में संकलित "हिमालय से" शीर्षक कविता से लिया गया हैं।

व्याख्या:- हिमालय की महानता का वर्णन करती हुई कवयित्री ने कहा है कि हे हिमालय! तुम चिरकाल से अपने गौरव एवं महानता को बनाये हुए हो। तुम्हारे श्वेत बर्फ से ढके हुए शिखरों पर जब सूर्य की सुनहली किरणें पड़ती हैं, तब लगता है कि जैसे चारों ओर तुम्हारी रंगीन हँसी बिखर गयी हो। बर्फ पर सुनहली किरणों के पड़ने से ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे हिमालय ने अपने सिर पर इन्द्रधनुषी रंगों की पगड़ी बाँध रखी हो। फूलों के सम्पर्क से सुगन्धित वायु उसके शरीर पर मानो चन्दन का लेप कर जाती है, परन्तु हिमालय इन सभी चीजों से निर्लिप्त है। इन सभी वस्तुओं से उसे किसी प्रकार का अनुराग नहीं है; इसलिए वह महान् है।

प्रश्न 2.
नभ में गर्वित झुकता न शीश, 
पर अंक लिये है दीन क्षार! 
मन गल जाता नत विश्व देख, 
तन सह लेता है कुलिश भार! 
कितने मृदु कितने कठिन प्राण !

व्याख्या:- कवयित्री का कथन है कि हे हिमालय ! स्वाभिमान से आकाश को छूने वाला तुम्हारा मस्तक किसी शक्ति के सम्मुख कभी नहीं झुकता है, फिर भी तुम्हारा हृदय इतना उदार है कि तुम अपनी गोद में तुच्छ धूल को भी धारण किये रहते हो । संसार को अपने चरणों में झुका देखकर तुम्हारा कोमल हृदय पिघलकर नदियों के रूप में प्रवाहित होने लगता है। हे हिमालय! तुम अपने शरीर पर वज्र के आघात सहकर भी विचलित नहीं होते। इस प्रकार तुम हृदय से कोमल और शरीर से कठोर हो । 

प्रश्न 3.
टूटी है तेरी कब समाधि,
झंझा लौटे शत हार-हार;
बह चला दृगों से किन्तु नीर; 
सुनकर जलते कण की पुकार !
सुख से विरक्त, दुःख में समान! [ 2014]

व्याख्या:- महादेवी जी ने हिमालय को एक समाधि मे लीन योगी के रूप में देखा है। वे उससे कहती हैं। कि हे हिमालय! सैकड़ों आँधी-तूफान तुझसे टकराते हैं और तुम्हारी दृढ़ता के सम्मुख हार मानकर लौट जाते हैं, किन्तु तुम अविचल भाव से समाधि में लीन रहते हो। इतनी बड़ी सहन-शक्ति और दृढ़ता होने पर भी तुच्छ धूल के जलते कण की करुण पुकार सुनकर तुम्हारी आँखों से करुणा के आँसू जल धारा बनकर बहने लगते हैं। तुम सुख और दुःख में एक समान रहते हो।

प्रश्न 4.
मेरे जीवन का आज मूक, 
तेरी छाया से हो मिलाप; 
तन तेरी साधकता छू ले, 
मन ले करुणा की थाह नाप ! 
उर में पावस दृग में विहान ! [2011]

व्याख्या:- महादेवी जी अपने जीवन को हिमालय की छाया में मिला देना चाहती हैं। तात्पर्य यह है कि वे हिमालय के सद्गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती हैं। इसीलिए वे हिमालय से कहती हैं कि मेरी कामना है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना-शक्ति से परिपूर्ण हो और हृदय में तुम्हारे जैसी करुणा का सागर भर जाए। मेरे हृदय में तुम्हारे जैसी करुणा की बरसात के कारण सरसता बनी रहे, परन्तु आँखों में ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहे।


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