Lesson-4 बिहारी (काव्य-खण्ड)भक्ति और नीति

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) Lesson-4 (भक्ति और नीति), कवि- बिहारीलाल [ संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्यगत सौन्दर्य, शब्दार्थ] exam oriented

📚Chapter=4📚

🌺बिहारीलाल 🌺

💎हिंदी (काव्य-खण्ड)💎

🪔भक्ति और नीति🪔

📚भक्ति 

प्रश्न 1. मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ । 
जा तन की झाई परै, स्यामु हरित - दुति होइ ॥ [2014]

सन्दर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी के 'काव्य-खण्ड' में संकलित रीतिकाल के रससिद्ध कवि बिहारी द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' के 'भक्ति' शीर्षक से लिया गया है। 

व्याख्या:- 
1. वह चतुर राधिका जी मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके पीली आभा वाले (गोरे) शरीर की झाँई (प्रतिबिम्ब) पड़ने से श्याम वर्ण के श्रीकृष्ण हरे रंग के हो जाते हैं।
2. वे चतुर राधिका जी मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करें, जिनके शरीर की झलक पड़ने से भगवान् कृष्ण भी प्रसन्नमुख हो जाते हैं।
3. हे चतुर राधिका जी ! आप मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके ज्ञानमय शरीर की झलकमात्र से मन की श्यामलता (पाप) नष्ट हो जाती है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. भाषा- ब्रज 
2. शैली- मुक्तक 
3. रस- भक्ति
4. छन्द - दोहा
5. अलंकार- अनुप्रास, श्लेष अलंकार 
6. गुण - प्रसाद और माधुर्य ।

प्रश्न 2. मोर मुकुट की चंद्रिकनु, यौं राजत नंदनंद ।। 
मनु ससि सेखर की अकस, किय सेखर सत चंद ॥

व्याख्या- कवि कहता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के सिर पर मोर पंखों का मुकुट शोभा दे रहा है। उन मोर पंखों के बीच में बनी सुनहरी चन्द्राकार चन्द्रिकाएँ देखकर ऐसा लगता है, जैसे मानो भगवान् शंकर से प्रतिस्पर्धा करने के लिए उन्होंने सैकड़ों चन्द्रमा सिर पर धारण कर लिये हों।
काव्यगत सौन्दर्य:-
🔸 भाषा-ब्रज।
🔸 शैली- मुक्तक।
🔸 छन्द-दोहा।
 🔸रस-श्रृंगार ।
🔸 अलंकार- अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, श्लेष ।
 🔸गुण-माधुर्य ।

प्रश्न 3. सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात । 
मनी नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात।।[ 2012, 14]

व्याख्या - श्रीकृष्ण का श्याम शरीर अत्यन्त सुन्दर है। वे अपने शरीर पर पीले वस्त्र पहने इस प्रकार शोभा पा रहे हैं, मानो नीलमणि के पर्वत पर प्रात:काल की पीली-पीली धूप पड़ रही हो । यहाँ श्रीकृष्ण श्याम वर्ण के उज्ज्वल मुख में नीलमणि शैल की और उनके पीले वस्त्रों में प्रात:कालीन धूप की सम्भावना की गयी है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. श्रीकृष्ण के श्याम शरीर पर पीले वस्त्रों के सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन है।
2. भाषा - ब्रज ।
3. शैली - मुक्तक 
4. रस- भक्ति ।
5. छन्द- दोहा
6. अलंकार- अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा
7. गुण-माधुर्य।

प्रश्न 4. अधर धरत हरि कै परत, ओठ डीठि पट जोति ।।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष हँग होति ॥ [ 2012, 14]

व्याख्या- श्रीकृष्ण अपने रक्त वर्ण के होठों पर हरे रंग की बाँसुरी रखकर बजा रहे हैं। उस समय उनकी दृष्टि के श्वेत रंग, वस्त्र के पीत वर्ण तथा शरीर के श्याम वर्ण की कान्ति रक्त वर्ण के होठों पर रखी हुई हरे रंग की बाँसुरी पर पड़ने से वह (बाँसुरी) इन्द्रधनुष के समान बहुरंगी शोभा वाली हो गयी है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. भाषा ब्रज।
2. शैली मुक्तक । 
3. रस भक्ति। 
4. छन्द-दोहा
5. अलंकार - अनुप्रास, यमक और उपमा।
6. गुण - प्रसाद ।

प्रश्न 5. या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोई।
ज्यों-ज्य बड़े स्याम रँग, त्यों-त्यों उज्जलु होई ॥ [2009, 18]

व्याख्या- कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यन्त विचित्र है। इसकी दशा को कोई नहीं समझ सकता है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु काले रंग में डूबने पर काली हो जाती है। श्रीकृष्ण भी श्याम वर्ण के हैं, किन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न यह मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग (कृष्ण की भक्ति, ध्यान आदि) में मग्न होता है वैसे-वैसे श्वेत (पवित्र) होता जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. भाषा - ब्रज ।
2. शैली मुक्तक ।
3. रस- शान्त।
4. छंद- दोहा।
5. अलंकार- श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश तथा विरोधाभास। 
6. गुण-माधुर्य ।

प्रश्न 6. तौ लगु या मन सदन मैं, हरि आवैं किहिं बाटबाट। 
विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट- कपाट।।[2009]

व्याख्या- कविवर बिहारी का कहना है कि इस मनरूपी घर में तब तक ईश्वर किस मार्ग से प्रवेश कर सकता है, जब तक मनरूपी घर में दृढ़ता से बन्द किये हुए कपटरूपी किवाड़ पूरी तरह से नहीं खुल जाते; अर्थात् हृदय से कपट निकाल देने पर ही हृदय में ईश्वर का प्रवेश व निवास सम्भव है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. भाषा ब्रज।
2. गुण प्रसाद ।
3. शैली - मुक्तक। 
4. रस-भक्ति।
5. छन्द-दोहा। 
6. अलंकार - रूपक तथा अनुप्रास ।

प्रश्न 7. जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि।
ज्यौं आँखिनु सबु देखिये, आँखि न देखी जाँहि ॥[2011]

व्याख्या -कवि का कथन है कि जिस ईश्वर ने तुम्हें समस्त संसार का ज्ञान कराया है, उसी ईश्वर को तुम नहीं जान पाये। जैसे आँखों से सब कुछ देखा जा सकता है, परन्तु आँखें स्वयं अपने को नहीं देख सकतीं।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. सम्पूर्ण संसार का ज्ञान कराने वाले ईश्वर की स्थिति से अनभिज्ञ मनुष्य का सजीव चित्रण किया गया है।
2. भाषा ब्रज।
3. शैली मुक्तक ।
4. छन्द-दोहा।
5. रस- शान्त ।
6. गुण- प्रसाद । 
7. अलंकार-अनुप्रास एवं दृष्टान्तः।

प्रश्न 8. जप, माला, छाप, तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचे वृथा, साँचे राँचे रामु ।। [2011]

व्याख्या-कवि का कथन है कि जप करने, माला फेरने, चन्दन का तिलक लगाने आदि बाह्य क्रियाओं से कोई काम पूरा नहीं होता। इन बाह्य आचरणों से सच्ची भक्ति नहीं होती है। जिनका मन ईश्वर की भक्ति करने से कतराता है, भक्ति करने में कच्चा है, वह व्यर्थ ही इधर-उधर की क्रियाओं में मारा-मारा फिरता है। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. कवि ईश्वर की सच्ची भक्ति पर बल देता है तथा स्पष्ट करता है कि बाह्य आचरणों में भक्ति का सच्चा स्वरूप नहीं है।
2. भाषा - साहित्यिक ब्रज ।
3. शैली - मुक्तक ।
4. रस- शान्त ।
5. छन्द - दोहा।
6. अलंकार- अनुप्रास । 
7. गुण- प्रसाद ।

📚नीति

प्रश्न 1. दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यों न बढ़े दुख-दंदु।
अधिक अँधेरी जग करत, मिलि मावस रबि चंदु।। [2016]

सन्दर्भ-प्रस्तुत दोहा कविवर बिहारी द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के काव्य-खण्ड में संकलित 'नीति' शीर्षक से लिया गया है ।

व्याख्या- कवि का कथन है कि एक ही देश में दो राजाओं के शासन से प्रजा के दुःख और संघर्ष अत्यधिक बढ़ जाते हैं। दुहरे शासन में प्रजा उसी प्रकार दुःखी हो जाती है, जिस प्रकार अमावस्या की रात्रि में सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि में मिलकर संसार को गहन अन्धकार से भर देते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. गुण- प्रसाद ।
2. दुहरा शासन प्रजा के लिए कष्टप्रद होता है। 
3. भाषा ब्रज ।
4. शैली मुक्तक । 
5. छन्द-दोहा।
6. रस शान्त ।
7. अलंकार - श्लेष और दृष्टान्त ।

प्रश्न 2. बसे बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु ।
भली-भलौ कहि छोड़िये, खोटें ग्रह जपु दानु ॥ [2016, 18] 

व्याख्या- कवि का मत है कि जिसके पास अनिष्ट करने की शक्ति (बुराई) है, उसका संसार में बहुत आदर होता है। भले को हानि न पहुँचाने वाला समझकर अर्थात् भला कहकर सब छोड़ देते हैं अर्थात् उसकी उपेक्षा करते हैं, लेकिन अनिष्ट ग्रह के आने पर जप दान आदि करके उसे शान्त करते हैं। अर्थात् यह है कि जिसमें बुराई या दुष्टता होती है, लोग उसी का सम्मान करते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. कवि ने अनिष्ट ग्रहों के आने पर जप, दान आदि से उन्हें शान्त करने के कार्यों के माध्यम से इस यथार्थ का सुन्दर चित्रण किया है कि लोग दुष्ट लोगों का सम्मान भयवश करते हैं।
2. भाषा - ब्रज ।
3. शैली मुक्तक । 
4. छन्द-दोहा।
5. रस- शान्त। 
6. गुण- प्रसाद व्यंजना। 
7. अलंकार- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश तथा दृष्टान्त। 

प्रश्न 3. नर की अरु नल नीर की गति एकै करि जोड़।
जेतौ नीचो है चले, तेतौ ऊँचौ होइ ॥ [2012, 16]

व्याख्या-कविवर बिहारी का कथन है कि मनुष्य और नल के जल की समान स्थिति होती है। जिस प्रकार नल का जल जितना नीचे होकर बहता है, उतना ही ऊँचा उठता है; उसी प्रकार मनुष्य जितना नम्रता का व्यवहार करता है, उतनी ही अधिक उन्नति करता है। इस प्रकार मनुष्य और नल का पानी जितना नीचे होकर चलते हैं, उतना ही ऊँचे उठते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. मनुष्य नम्रता से उन्नति करता है। 
2. भाषा ब्रज ।
3. शैली - मुक्तक । 
4. रस- शान्त ।
5. छन्द - दोहा 
6. गुणप्रसाद ।
7. अलंकार- उपमा, विरोधाभास, श्लेष। 

प्रश्न 4. बढ़त-बढ़त संपति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाई।
घटत-घटत सु न फिरि घटे, बरु समूल कुम्हिलाई ॥ [2012, 14, 17]

व्याख्या- कवि का कथन है कि धनरूपी जल के बढ़ जाने के साथ-साथ मनरूपी कमल भी बढ़ता चला जाता है, किन्तु धनरूपी जल के घटने के साथ-साथ मनरूपी कमल नहीं घटता, अपितु समूल नष्ट हो जाता है अर्थात् धन के बढ़ जाने पर मन की इच्छाएँ भी बढ़ जाती हैं, परन्तु धन के घट जाने पर मन की इच्छाएँ नहीं घटती हैं। तब परिणाम यह होता है कि मनुष्य यह सह नहीं पाता और दुःख से मरे हुए के समान हो जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. गुण- प्रसाद।
2. भाषा ब्रज।
3. शैली मुक्तक ।
4. छन्द- दोहा।
5. रस- शान्त।
6. अलंकार- पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक तथा अनुप्रास। 

प्रश्न 5. जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न मित्त। 
रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह चीकन चित्त ॥ [ 2014, 17]

व्याख्या -कवि का कथन है कि यदि आप चाहते हैं कि मित्रता की चटक अर्थात् चमक समाप्त न हो तथा मित्रता स्थायी बनी रहे और उसमें दोष उत्पन्न न हों, तो धन-वैभव का इससे सम्बन्ध न होने दें। धन अथवा किसी अन्य वस्तु का लोभ मित्रता गंदा कर देता है। मित्र के स्नेह से चिकना मन धनरूपी धूल के स्पर्श से मैला हो जाता है। जिस प्रकार तेल से चिकनी वस्तु धूल के स्पर्श से मैली हो जाती है और उसकी चमक घट जाती है, उसी प्रकार प्रेम से कोमल चित्त; धनरूपी धूल के स्पर्श से दोषयुक्त हो जाता है और मित्रता में कमी आ जाती है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. मित्रता में धन के लेन-देन का व्यवहार कम रखने से ही मित्रता विद्वेष रहित हो सकती है।
2. भाषा ब्रज ।
3. शैली - मुक्तक ।
4. रस शान्त।
5. छन्द दोहा।
6. अलंकार - रूपक, अनुप्रास तथा श्लेष ।
7. गुण - प्रसाद ।

प्रश्न 6. बुरी बुराई जौ तजे, तौ चितु खरौ डरातू। 
ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि, गनैं लोग उतपातु ।। 

व्याख्या कविवर बिहारी का कथन है कि यदि दुष्ट व्यक्ति सहसा अपनी दुष्टता छोड़कर अच्छा व्यवहार करने लगे तो उससे चित्त अधिक भयभीत होने लगता है। जैसे चन्द्रमा को कलंकरहित देखकर लोग अमंगलसूचक मानने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमा का कलंकरहित होना असम्भव है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति का एकाएक दुष्टता त्यागना भी असम्भव है।
काव्यगत सौन्दर्य-
1. अलंकार - अनुप्रास तथा दृष्टान्त ।
2. गुण- प्रसाद ।
3. भाषा ब्रज । 
4. शैली मुक्तक ।
5. रस - शान्त ।
6. छन्द - दोहा ।। 

प्रश्न 7. स्वारथु सुकृतु न श्रम वृथा देखि बिहंग बिचारि ।
बाज पराए पानि परि, हूँ पच्छीनु न मारि ॥ 

व्याख्या-
1. हे बाज! तू अपने मन में अच्छी तरह सोच-विचार कर देख ले कि तू शिकारी के हाथ में पड़कर अपनी जाति के पक्षियों को मारता है। इसमें न तो तेरा स्वार्थ है, न यह अच्छा कार्य ही है, तेरा श्रम भी व्यर्थ ही जाता है; क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर तेरै मालिक को प्राप्त होता है। तू दूसरों के हाथ की कठपुतली बनकर अपनी जाति के पक्षियों का वध कर रहा है। अब तू मेरी सलाह मानकर अपनी जाति के पक्षियों का वध मत कर तू
2. हे राजा जयसिंह! तू विचार कर देख ले कि तू बाज पक्षी की तरह अपने शासक औरंगजेब के तू हाथ की कठपुतली बनकर अपने साथी इन हिन्दू राजाओं पर आक्रमण कर रहा है। इस कार्य को करने से तेरे स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती है, जीता हुआ राज्य तुझे नहीं मिलता। युद्ध में राजाओं का वध करना कोई पुण्य का कार्य भी नहीं है। तुम्हारे श्रम का फल तुम्हें न मिलने से तुम्हारा श्रम व्यर्थ हो जाता है। इसलिए तू औरंगजेब के कहने से अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका वध मत कर।।।
काव्यगत सौन्दर्य- 
1. राजा जयसिंह ने औरंगजेब के कहने से अनेक हिन्दू राजाओं के विरुद्ध युद्ध किया था। 
2. 
शब्दशक्ति - अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
3. भाषा ब्रज।
4. शैली मुक्तक । 
5. रस शान्त । 
6. छन्द - दोहा ।
7. अलंकार - अन्योक्ति अलंकार और श्लेष है।
8. गुण प्रसाद एवं ओज। 

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