Lesson-7 स्वदेश-प्रेम, कवि-श्री रामनरेश त्रिपाठी

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) Lesson-7, स्वदेश-प्रेम, कवि-श्री रामनरेश त्रिपाठी [ संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्यगत सौन्दर्य, शब्दार्थ] exam oriented.


✍Chapter-7✍

🇮🇳स्वदेश-प्रेम🇮🇳

🏟श्री रामनरेश त्रिपाठी🏟

📚हिंदी(काव्य-खण्ड)📚


स्वदेश-प्रेम

प्रश्न 1.
अतुलनीय जिनके प्रताप का 
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर। 
घूम-घूम कर देख चुका है, 
जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर। 
देख चुके हैं जिनका वैभव,  
ये नभ के अनन्त तारागण । 
अगणित बार सुन चुका है नभ, 
जिनका विजय घोष रण-गर्जन ।। [2015]

सन्दर्भ:- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'काव्य-खण्ड में संकलित श्री रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित 'स्वदेश-प्रेम' शीर्षक कविता से अवतरित है। यह कविता त्रिपाठी जी के काव्य-संग्रह 'स्वप्न' से ली गयी है।

व्याख्या:- त्रिपाठी जी कहते हैं कि तुम अपने उन पूर्वजों का स्मरण करो, जिनके अतुलनीय प्रताप की साक्षी सूर्य आज भी दे रहा है। ये ही तो हमारे पूर्वपुरुष थे, जिनकी धवल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी यहाँ-वहाँ सभी जगह घूम-घूमकर देख चुका है। वे हमारे पूर्वज ऐसे थे, जिनके ऐश्वर्य को तारों का अनन्त समूह बहुत पहले देख चुका था। हमारे पूर्वजों की विजय घोषों और युद्ध-गर्जनाओं को भी आकाश अनगिनत बार सुन चुका है।

प्रश्न 2.
शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, 
जिनके दिव्य देश का मस्तक, 
गुँज रही हैं सकल दिशाएँ । 
जिनके जय गीतों से अब तक ॥ 
जिनकी महिमा का है अविरल, 
साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरि-वर । 
उतरा करते थे विमान-दल 
जिसके विस्तृत वक्षस्थल पर ।।[2014]

व्याख्या:- कवि त्रिपाठी जी आगे कहते हैं कि यह 'भारत' हमारे पूर्वजों का देश है। इसका मस्तक हिमालयरूपी सर्वोच्च मुकुट से सुशोभित हो रहा है। हमारे पूर्वजों के विजय-गीतों से आज . तक भी सम्पूर्ण दिशाएँ गुँज रही हैं। जिनकी महिमा की गवाही आज भी सत्य स्वरूप वाला श्रेष्ठ हिमालय दे रहा है। इस भारत-भूमि के अति विस्तृत अथवा विशाल वक्षस्थल पर विभिन्न देशों के विमान समूह बना-बनाकर उतरा करते थे।

प्रश्न 3.
सागर निज छाती पर जिनके, 
अगणित अर्णव-पोत उठाकर। 
पहुँचाया करता था प्रमुदित, 
भूमंडल के सकल तटों पर ।
नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी ।
बहती हैं अब भी निशि-वासर ।
ढूँढ़ो, उनके चरण-चिह्न भी 
पाओगे तुम इनके तट पर । [2017]

व्याख्या:- हमारे पूर्वज ऐसे थे कि स्वयं समुद्र भी उनकी सेवा में तत्पर रहता था। वह अपनी छाती पर उनके असंख्य जहाजों को उठाकर प्रसन्नता के साथ पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने पर स्थित समस्त बन्दरगाहों पर पहुँचाया करता था । इस देश में रात-दिन बहती हुई नदियों की धारा मानो हमारे उन पूर्वजों का यशोगान गाती जाती है। धन्य थे वे हमारे ऐसे पूर्वज ! जिनका समर्पण, उत्साह और शौर्य अद्भुत था । कवि को विश्वास है कि उनके चरण- चिह्न आज भी हमारी नदियों और समुद्रों के तटों पर मिल जाएँगे। तात्पर्य यह है कि यदि आप अपने पूर्वजों का अनुसरण करेंगे तो आपको उनका मार्गदर्शन अवश्य मिलता रहेगा।

प्रश्न 4.
विषुवत् रेखा का वासी जो, 
जीता है नित हाँफ-हाँफ कर। 
रखता है अनुराग अलौकिक, 
वह भी अपनी मातृभूमि पर
धुव-वासी, जो हिम में, तम में, 
जी लेता है काँप-काँप कर। 
वह भी अपनी मातृ-भूमि पर । 
कर देता है प्राण निछावर ॥ [2011]

व्याख्या:- जो मनुष्य भूमध्य रेखा का निवासी है, जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है, वहाँ वह गर्मी के कारण हॉफ-हॉफकर अपना जीवन व्यतीत करता है, फिर भी उस स्थान से लगाव के कारण वहाँ की भीषण गर्मी को छोड़कर वह शीतल प्रदेश में नहीं जाता। वह कष्ट उठाता हुआ भी अपनी मातृभूमि पर असाधारण प्रेम और अपार श्रद्धा रखता है। जो मनुष्य ध्रुव प्रदेश का रहने वाला है, जहाँ सदा बर्फ जमी रहने के कारण भयंकर सर्दी पड़ती है, वहाँ वह भयंकर ठण्ड से काँप-कॉपकर अपना जीवन-निर्वाह कर लेता है, किन्तु ठण्ड से घबराकर गर्म प्रदेशों में जाकर जीवन नहीं बिताता। उसे भी अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम होता है और उसकी रक्षा के लिए वह भी अपने प्राण निछावर कर देता है।

प्रश्न 5.
तुम तो, हे प्रियबंधु! स्वर्ग-सी, 
सुखद्, सकल विभवों की आकर। 
धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में, 
धन्य हुए हो जीवन पाकर ॥ 
तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर, 
बड़े हुए लेकर जिसकी रज। 
तन रहते कैसे तज दोगे, 
उसको, हे वीरों के वंशज ॥

व्याख्या:- देशप्रेम की प्रेरणा देते हुए कवि भारतवासियों से कहता है कि विषुवत् और ध्रुव प्रदेशों के निवासी भी अपने देश से प्रेम रखते हैं तो आपको अपनी भारत-भूमि से तो निश्चय ही अधिक प्रेम होना चाहिए; क्योंकि यहाँ की धरती सुख-समृद्धि से युक्त, समस्त वैभवों से परिपूर्ण तथा स्वर्ग से भी बढ़कर है। सभी देशों की धरती की अपेक्षा इस धरती पर जन्म पाना बड़े पुण्यों का फल होता है। तुम धन्य हो कि जो तुमने यहाँ जन्म पाया है और यहाँ का अन्न खाकर, पानी पीकर और इसी की धूल-मिट्टी में खेलकर बड़े हुए हो; तब शरीर के रहते हुए हे वीरों के वंशज ! तुम इसको कैसे त्याग दोगे ?

प्रश्न 6.
जब तक साथ एक भी दम हो, 
हो अवशिष्ट एक भी धड़कन । 
रखो आत्म गौरव से ऊँची--
पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन ॥ 
एक बूंद भी रक्त शेष हो, 
जब तक मन में हे शत्रुजय !
दीन वचन मुख से न उचारो, 
मानो नहीं मृत्यु का भी भय ।।[2017]

व्याख्या:- कविवर त्रिपाठी जी का कथन है कि जब तक तुम्हारी साँसें चल रही हैं और तुम्हारा हृदय धड़क रहा है, तब तक तुम्हें अपना और अपने देश का गौरव ऊँचा रखना है। अपनी पलकें, अपना सिर तथा अपना मनोबल ऊँचा रखना है। जब तक तुम्हारे शरीर में एक बूंद भी रक्त शेष रहे, तब तक हे शत्रु को जीतने वाले भारतीयो! तुम दीन वचन नहीं बोलो और देश की रक्षा करते हुए यदि तुम्हारी मृत्यु भी हो जाए तो तुम्हें उसका भी डर नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 7.
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का, 
मृत्यु एक है विश्राम स्थल । 
जीव जहाँ से फिर चलता है, 
धारण कर नव जीवन-संबल।। 
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें, 
श्रम से कातर जीव नहाकर ।। 
फिर नूतन धारण करता है, 
काया-रूपी वस्त्र बहाकर ॥ [2011, 13, 18]

व्याख्या:- हे भारत के वीरो ! तुम निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करो और मृत्यु से कभी मत डरो; क्योंकि मृत्यु वह स्थान है, जहाँ मनुष्य पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है और पुनः नवीन जीवन की यात्रा पर अग्रसर होता है। कवि कहता है कि मृत्यु एक नदी है, जिसमें नहाकर मनुष्य जीवनभर की थकान को दूर करता है। वह उस मृत्युरूपी नदी में अपने शरीररूपी पुराने वस्त्र को बहा देता है और पुन: दूसरे नये जीवनरूपी वस्त्र को धारण करता है । कवि का तात्पर्य यह है कि हमें निर्भीकता और उल्लास के साथ मृत्यु का स्वागत करना चाहिए।

प्रश्न 8.
सच्चा प्रेम वही है जिसकी--
तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर । 
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, 
करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥ 
देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, 
अमल, असीम, त्याग से विलसित । 
आत्मा के विकास से जिसमें, 
मनुष्यता होती है विकसित ॥ [2009, 12, 14, 16]

व्याख्या:- कवि कहता है कि सच्चा प्रेम वही है, जिसमें आत्म-त्याग की भावना होती है। सच्चे प्रेम के लिए यदि हमें अपने प्राणों को भी न्योछावर करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। बिना त्याग के प्रेम प्राणहीन है। त्याग से ही प्रेम में प्राणों का संचार होता है; अत: सच्चे प्रेम के लिए प्राणों का बलिदान करने को भी सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। देशप्रेम वह पवित्र भावना है, जो निर्मल और सीमारहित त्याग से सुशोभित होती है। देशप्रेम की भावना से ही मनुष्य की आत्मा विकसित होती है। आत्मा के विकास से मनुष्य का विकास होता है; अत: देशप्रेम से आत्मा का विकास और आत्मा के विकास से मनुष्यता का विकास करना चाहिए।

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