देवनागरी लिपि का विकास या नामकरण

क्या आप जानते है, देवनागरी लिपि का विकास/परिभाषा/नामकरण कैसे हुआ और किस समय/कब आरम्भ हुआ? देवनागरी लिपि किस प्रकार लिखा जाता है? देवनागरी लिपि के गुण और दोष क्या-क्या है? देवनागरी लिपि में कौन-कौन से सुधार किए गए है? इस पोस्ट में हम इन सभी के बारे के जानेगे।


देवनागरी लिपि का विकास

उच्चारित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति भाषा कहलाती है जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि कहलाती है। भाषा श्रव्य(सुनना/बोलना) होती है, जबकि लिपि दृश्य(देखना) होती है। 
भारत की सभी लिपियां ब्राह्मी लिपि से ही निकलती है यह लिपि ब्रह्मा के मुख से निःसृत मानी जाती है। ब्राम्ही लिपि का प्रयोग वैदिक आर्य ने शुरू किया था। ब्राम्ही लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी का है, जो कि बौद्धकालीन है। 
गुप्तकाल के आरंभ में ब्राम्ही के दो भेद हो गए उत्तरी व दक्षिणी ब्राह्मी लिपि

उत्तरी ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास:→

उत्तरी ब्राह्मी (350ई. तक)
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गुप्त लिपि   (4थी-5वी सदी) 
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सिद्धमातृका लिपि  |
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कुटिल लिपि          |
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नागरी              शारदा 
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     गुरुमुखी   कश्मीरी    लहदा    टाकरी 

नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं-9वीं सदी से प्रारंभ हुआ। 10 वीं से 12 वीं सदी के बीच इस प्राचीन नागरी से उतरी भारत की अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ इसकी दो शाखाएं मिलती पश्चिमी और पूर्वी। पश्चिमी शाखा के सर्वप्रमुख प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।

                         नागरी
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पश्चिमी शाखा                          पूर्वी शाखा
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देवनागरी, राजस्थानी,              बांग्ला लिपि, 
गुजराती, महाजनी, कैथी         असमी, उड़ीया

देवनागरी लिपि का नामकरण :-

देवनागरी लिपि को "लोक नागरिक" एवं "हिंदी लिपि" के नाम से भी जाना जाता है। देवनागरी लिपि का नामकरण विवादास्पद है ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इसका संबंध जोड़ते हैं, उनका मानना है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहां के पंडित वर्ग अर्थात नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे 'नागरी' कहा गया। 

देवनागरी लिपि का स्वरूप:- 

यह लिपि बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है जबकि फ़ारसी लिपि (उर्दू, अरबी, फारसी भाषा की लिपि) दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।
यह अक्षरात्मक लिपि है जबकि रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि) वर्णात्मक लिपि है।

देवनागरी लिपि के गुण(वैज्ञानिकता) :-

●देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए केवल एक ही वर्ण संकेत होता है।  
●एक वर्ण संकेत से अनिवार्यत: एक ही धनी व्यक्त होती है। 
●जो ध्वनि का नाम होता है वही वर्ण का नाम होता है।
●देवनागरी लिपि में कोई मुक वर्ण नहीं होता है। 
●एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं होता है।
●उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता होती है। 
●वर्णमाला ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप होती है।
●भारत की अनेक लिपियों के निकट है।

देवनागरी लिपि के दोष:- 

●कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकन, मुद्रण में कठिनाई होती है। 
●शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए किया गया है। 
●अनावश्यक वर्ण (ऋ, लृ, ङ्, ञ्, ष- आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चरित नहीं कर पाता)
●द्विरूप वर्ण (राा ण, ञ्प्र अ, त्  त्र, ६ छ, श श्र)
●समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)
●वर्णो के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नही है।
● अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव है।
●त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।
●वर्णो के संयुक्तिकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति है। 
●इ की मात्रा का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद।

देवनागरी लिपि में किए गए सुधार:- 

★बाल गंगाधर का 'तिलक फांट' (1904-26)
★सावरकर बंधुओं का "अ की बारहखडी" 
★श्यामसुंदर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुसार के प्रयोग का सुझाव।
★गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव।
★श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे s चिन्ह लगाने का सुझाव। 
★हिंदी साहित्य सम्मेलन का इंदौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफारिशें। 
★काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
★उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेंद्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें।
★शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी प्रकाशन- 'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966ई०), 'हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' (1967ई०), देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण (1983ई०) आदि।

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