रसखान (काव्य-खण्ड)

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) Lesson-3 (सवैये), कवि- रसखान [ संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्यगत सौन्दर्य, शब्दार्थ] exam oriented.

✍Chapter 3 ✍

🌻सवैये (रसखान)🌻 

🌼हिंदी(काव्य-खण्ड)🌼

प्रश्न 1.
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन। 
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर-धारन । 
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥ [ 2009, 11, 18]

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिंदी के काव्य खंड के ''सवैये'' नामक पाठ से लिया गया है इसके कवि रसखान जी हैं। 

व्याख्या- रसखान कवि कहते हैं कि हे भगवान! मैं मृत्यु के बाद अगले जन्म में यदि मनुष्य के रूप में जन्म प्राप्त करू तो मेरी इच्छा है कि मैं ब्रजभूमि में गोकुल के ग्वालों के मध्य निवास करूं। यदि मैं पशु योनि में जन्म ग्रहण करू, जिसमें मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि मैं नन्द जी की गायों के बीच विचरण करता रहूँ । यदि मैं अगले जन्म में पत्थर बनू तो मेरी इच्छा है कि मैं उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनू, जिसे आपने इन्द्र का घमण्ड चूर करने के लिए और जलमग्न होने से गोकुल ग्राम की रक्षा करने के लिए अपनी अँगुली पर छाते के समान उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी योनि में भी जन्म लेना पड़ा तो भी मेरी इच्छा है कि मैं यमुना नदी के किनारे स्थित कदम्ब वृक्ष की शाखाओं पर ही निवास करू। 

काव्यगत सौन्दर्य-
1. रसखान कवि की कृष्ण के प्रति असीम भक्ति को प्रदर्शित किया गया है। 
2. भाषा - ब्रज 
3. शैली -मुक्तक
4. रस- शान्त एवं भक्ति 
5. छन्द- सवैया 
6. अलंकार- अनुप्रास
7. गुण- प्रसाद ।

प्रश्न 2.
आजु गयी हुती भोर ही हौं, रसखानि रई बहि नंद के भौनहिं। वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सूख जात कह्यौ नहिं ॥
तेल लगाइ लगाई कै अँजन, भौंहें बनाई बनाई डिठौनहिं।
डारि हमेलनि हार निहारत बारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं। 

व्याख्या-एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! आज प्रातः काल के समय श्रीकृष्ण के प्रेम मे मग्न हुई मैं नन्द जी के घर गयी थी। मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्रीकृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जीवित रहे। यशोदा के सुख के बारे में कुछ कहते नहीं बनता है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे श्रीकृष्ण के शरीर में तेल लगाकर आँखों में काजल लगा रही थीं। उन्होंने उनकी सुन्दर-सी भौंहें सँवारकर बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर टीका लगा दिया था। वे उनके गले में सोने का हार डालकर और उनके रूप को निहारकर अपने जीवन को न्योछावर कर रही थीं और प्रेमावश में बार-बार अपने पुत्र को पुचकार रही थीं।

काव्यगत सौन्दर्य-
1. प्रस्तुत छन्द में माता यशोदा के वात्सल्य भाव और श्रीकृष्ण के प्रातः कालीन श्रृंगार का अनुपम वर्णन किया गया है।
2. भाषा-ब्रज
3. शैली- चित्रात्मक और मुक्तक 
4. रस-वात्सल्य
5. छन्द-सवैया
6. अलंकार- यमक, अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश 
7. गुण- प्रसाद ।

प्रश्न 3.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी । खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी ॥ 
वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी । काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सों लै गयौ माखन रोटी। [2012, 15] 

व्याख्या- हे सखी! श्यामवर्ण के कृष्ण धूल से सने हुए हैं और अत्यधिक शोभायमान हो रहे हैं। वैसे ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी सुशोभित हो रही है। वे खेलते और खाते हुए अपने घर के आँगन में घूम रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है और वे पीले रंग की छोटी-सी धोती पहने हुए हैं। रसखान कवि कहते हैं कि उनके उस सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओं को न्योछावर करते है। हे सखी! उस कौवे के भाग्य का क्या कहना, जो कृष्ण के हाथ से मक्खन और रोटी छीनकर ले गया। अर्थात कृष्ण की जूठी मक्खन रोटी खाने का अवसर जिसको प्राप्त हो गया, वह धन्य है।

काव्यगत सौन्दर्य-
1. प्रस्तुत छन्द में श्रीकृष्ण के बाल सौन्दर्य का बड़ा ही मोहक वर्णन किया गया है।
2. भाषा - ब्रज
3. शैली - चित्रात्मक और मुक्तक
4. रसवात्सल्य और भक्ति
5. छन्द- सवैया
6. अलंकार- अनुप्रास, प्रतीप
7. गुण-माधुर्य। 

प्रश्न 4.
जा दिन तें वह नंद को छोहरा, या बन धेनु चराई गयी है। मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है ॥
वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै मैं समाई गयौ है। कोऊ न काहू की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर बिकाइ गयौ है। 

व्याख्या - एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! जिस दिन से वह नन्द का लाड़ला बालक इस वन में आकर गायों को चरा गया है तथा अपनी मोहनी तान सुनाकर और वंशी बजाकर हम सबको रिझा गया है, उसी दिन से ऐसा जान पड़ता है कि वह कोई जादू-सा करके हमारे मन में बस गया है। इसलिए अब कोई भी गोपी किसी की मर्यादा का पालन नहीं करती है, उन्होंने तो अपनी लज्जा एवं संकोच सब कुछ त्याग दिया है। ऐसा मालूम पड़ता है कि सम्पूर्ण ब्रज ही उस कृष्ण के हाथों बिक गया है। 

काव्यगत सौन्दर्य-
1. यहाँ गोपियों पर कृष्ण-प्रेम के जादू का सजीव वर्णन किया गया है।
2. भाषा - ब्रज
3. शैली - मुक्तक 
4. छन्द - सवैया 
5. रस-श्रृंगार 
6. अलंकार- अनुप्रास 
7. गुण- माधुर्य ।

 प्रश्न 5.
कान्ह भये बस बाँसुरी के अब कौन सखी, हमकौं चहिहै ।
निसद्यौस रहै संग-साथ लगी, यह सौतीन तापन क्यौं सहिहै ॥ जिन मोहि लियौ मनमोहन कौ, रसखानि सदा हमकों दहिहै । मिलि आओ सबै सखि, भागि चलै अब तो ब्रज मैं बंसुरी रहिहै।

व्याख्या - एक गोपी अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण अब बाँसुरी के वश में हो गये हैं, अब हमसे कौन प्रेम करेगा? श्रीकृष्ण हमसे बहुत प्रेम करते थे, किन्तु अब वे इस दुष्ट बाँसुरी से प्रेम करने लगे हैं। यह बाँसुरी रात-दिन उनके साथ लगी रहती है। यह अब गोपीरूपी सौत की ईष्र्या के सन्ताप को क्यों सहन करेगी? जिस बाँसुरी ने हमारे मन को मोहने वाले कृष्ण को अपने प्रेम से मोहित कर लिया है, वह हमें सदा ईर्ष्या से जलाती रहेगी। हे सखी! आओ हम सब मिलकर ब्रज छोड़कर अन्यत्र चलें; क्योंकि यहाँ अब केवल बाँसुरी ही रह सकेगी। 

काव्यगत सौन्दर्य-
1. प्रस्तुत छन्द में गोपियों की मुरली के प्रति स्वाभाविक ईष्र्या का सजीव वर्णन किया गया है।
2. भाषा- ब्रज 
3. शैली - मुक्तक
4. रस- श्रृंगार 
5. छन्द- सवैया
6. अलंकार - अनुप्रास। 

प्रश्न 6.
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी। 
ओढि पितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी ॥ भावतो वोहि मेरो रसखानि, सो तेरे कहै सब स्वाँग करौंगी। 
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरींगी ॥
व्याख्या-
एक गोपी अपनी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! मैं तुम्हारे कहने से अपने सिर पर मोर के पंखों से बना मुकुट धारण करूंगी, अपने गले में गुंजा की माला पहन लूंगी, कृष्ण की तरह पीले वस्त्र पहनकर और हाथ में लाठी लिये हुए ग्वालों के साथ गायों को चराती हुई वन-वन घूमती रहूंगी। ये सभी कार्य मुझे अच्छे लगते हैं और तेरे कहने से मैं कृष्ण के सभी वेश भी धारण कर लूंगी, परन्तु उनके होठों पर रखी हुई बाँसुरी का अपने होठों से स्पर्श नहीं करूंगी। गोपियाँ उसे सौत मानकर उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहती हैं; क्योंकि वह श्रीकृष्ण के ज्यादा ही मुँह लगी हुई है। 

काव्यगत सौन्दर्य-
1. प्रस्तुत छन्द में कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम और बाँसुरी के प्रति ईष्या का स्वाभाविक चित्रण किया गया है।
2. भाषा ब्रज 
3. शैली मुक्तक 
4. गुण माधुर्य
5. रस श्रृंगार 
6. छन्द  सवैया 
7. अलंकार अनुप्रास तथा यमक ।

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