Class-10, Lesson-1(सूरदास) पद

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) Lesson-1 (पद), कवि- सूरदास [ संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्यगत सौन्दर्य, शब्दार्थ] exam oriented.
 

📔पाठ -1📔

📖पद(काव्य-खण्ड)📖

✍सूरदास ✍


प्रश्न 1. चरन कमल बंद हरि राई। 
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई ॥ 
बहिरी सुने, गैंग पुनि बोले, रंक चलै सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंद तिहिं पाई ॥[ 2012, 15, 17]

संदर्भ:- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के काव्य खंड से पद नामक पाठ से लिया गया है। जिसके कवि सूरदास जी है।

व्याख्या:- शिरोमणि सूरदास श्रीकृष्ण के कमलरूपी चरणों की वन्दना करते हुए कहते हैं कि इन चरणों का प्रभाव बहुत व्यापक है। इनकी कृपा हो जाने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वतों को लाँघ लेता है। और अन्धे को सब कुछ दिखाई देने लगता है। बहरा व्यक्ति सुनने लगता है और गूंगा पुनः बोलने लगता है। दरिद्र व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर राज छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे दयालु प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. गुण- प्रसाद ।
2. भाषा- साहित्यिक ब्रज ।
3. शैली मुक्तक।
4. छन्द-गेय पद।
5. रस-भक्ति। 
6. अलंकार - अनुप्रास रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश ।
7. शब्द शक्ति- लक्षणा ।

प्रश्न 2.अबिगत-गति कछु कहत न आवे । 
ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावे ॥ 
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै । 
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानें जो पावै ॥
रूप-रेख-गुन जाति-जुगति-बिन निरालंब कित धाये। 
सब बिधि अगम बिचारहिं तातें, सूर सगुन पद गावै ॥ [ 2012, 14]

व्याख्या -सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म का वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। उसकी स्थिति के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। निर्गुण ब्रह्म की उपासना का आनन्द किसी भक्त के लिए उसी प्रकार अवर्णनीय है, जिस प्रकार गूंगे के लिए मीठे फल का स्वाद जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल के स्वाद को कहकर नहीं प्रकट कर सकता, वह मन ही मन उसके आनन्द का अनुभव किया करता है, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता। उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है, परन्तु वह प्रत्येक की सामर्थ्य से बाहर की बात है। उसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। निर्गुण ब्रह्म का न कोई रूप है, न कोई आकृति, न उसकी कोई निश्चित विशेषता है, न जाति और न वह किसी युक्ति से प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि निर्गुण ब्रह्म सभी प्रकार से पहुँच के बाहर है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद गाना अधिक उचित समझा है।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. गुण- प्रसाद ।
2. भाषा- साहित्यिक ब्रज ।
3. शैली मुक्तक।
4. छन्द-गेय पद।
5. रस-भक्ति और शान्त। 
6. अलंकार - अनुप्रास
7. शब्द शक्ति- लक्षणा ।

प्रश्न 3. किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।।
मनिमय कनक नंद के आँगन, बिम्ब पकरिबें धावत ॥ 
कबहूँ निरखि हरि आप छाँह को कर सौं पकरने चाहत। किलकि हँसत राजत द्वे दतियाँ,पुनि-पुनि तिहि अवगाहत।।
नक भूमि पर कर पग छाया, यह उपमा इक राजति । 
करि करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति ॥

व्याख्या- श्रीकृष्ण के सौन्दर्य एवं बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि बालक कृष्ण अब घुटनों के बल चलने लगे हैं। राजा नन्द का आँगन सोने का बना है और मणियों से जडित है। उस आँगन में श्रीकृष्ण घुटनों के बल चलते हैं तो किलकारी भी मारते हैं और अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने के लिए दौड़ते हैं। जब वे किलकारी मारकर हँसते हैं तो उनके मुख में दो दाँत शोभा देते हैं। उन दाँतों के प्रतिबिम्ब को भी वे पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनके हाथ-पैरों की छाया उस सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत होती है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया है। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती हैं और बाबा नन्द को भी बार-बार वहाँ बुलाती हैं। इसके बाद माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक कृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती हैं।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. अलंकार- अनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश ।
2. भाषा सरस मधुर ब्रज । 
3. शैली मुक्तक ।
4. छन्द- गेय पद।
5. रसवात्सल्य । 
6. शब्दशक्ति- लक्षणा । 
7. गुण- प्रसाद और माधुर्य

प्रश्न 4. मैं अपनी सब गाई चरैहौं ।
प्रात होत बल के संग जैहौं, तेरे कहें न रहीं । 
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत ।
आजुन सोव नंद- दुहाई, रैनि रहोगी जागत 
और ग्वाल सब गाई चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौं । 
सूर स्याम तुम सोइ रहो अब प्रात जान में दैहों।

व्याख्या- श्रीकृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि हे माता मैं अपनी सब गायों को चराने के लिए वन में जाऊँगा। प्रातः होते ही मैं अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायें चराने चला जाऊँगा और तुम्हारे रोकने पर भी न रूकूग। मुझे ग्वाल-बालों और गायों के बीच में रहते हुए जरा भी भय नहीं लगता। मैं नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि आज रात्रि में सोऊँगा भी नहीं, मैं रातभर जागता ही रहूंगा। कहीं ऐसा न हो कि सवेरा होने पर मेरी आँखें ही न खुलें और मैं गायें चराने न जा सकूँ। सूरदास जी कहते हैं कि बालक श्रीकृष्ण की बात सुनकर माता यशोदा उनसे कहती हैं कि मेरे लाल ! अब तुम निश्चिन्त होकर सो जाओ। प्रातः काल मैं तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य जाने देंगी।

काव्यगत सौन्दर्य:-
1. गुण-माधुर्य ।
2. भाषा सरस और सुबोध ब्रज ।
3. शैली-मुक्तक ।
4. छन्द-गेय पद।
5. रस-वात्सल्य।
6. अलंकार-अनुप्रास ।

प्रश्न 5. मैया हीं न चरैहों गाइ
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों, मेरे पाईं पिराइ।
जन पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंहँ दिवाइ । 
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥ 
मैं पठेवति अपने लरिका को आवे मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरो अतिबाल मारत ताहि रिंगाई [2009]

व्याख्या- बाल-स्वभाव के अनुरूप श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! मैं अब गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं। इधर से उधर दौड़ते दौड़ते मेरे पाँवों में पीड़ा होने लगी है। यदि तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो बलराम को अपनी सौगन्ध दिलाकर पूछ लो यह सुनकर माता यशोदा ग्वाल-बालों पर क्रोध करती हैं और उन्हें गाली देती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कह रही हैं कि मैं तो अपने पुत्र को केवल मन बहलाने के लिए वन में भेजती हूँ और ये ग्वाल-बाल उसे इधर-उधर दौड़ाकर परेशान करते रहते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. अलंकार- अनुप्रास ।
2. भाषा- सरल और स्वाभाविक ब्रज ।
3. शैली- मुक्तक।
4. छन्द-गेय पद।
5. रसवस्ल्य 
6. शब्दशक्ति-अभिधा।
7. गुण- माधुर्य ।

प्रश्न 6. सखी री, मुरली लीजे चोरि ।
जिनि गुपाल कीन्हें अपने बस, प्रीति सबनि की तोरि ॥ 
छिन इक घर-भीतर, निसि बासर धरतन कबहूँ छोरि । 
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खाँसत जोरि ॥ 
ना जानों कछू मेलि मोहिनी राखे अँग अँग भोरि ।
सूरदास प्रभु को मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि ॥

व्याख्या-गोपियाँ श्रीकृष्ण की वंशी को अपनी सौतन समझती हैं। एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! अब हमें श्रीकृष्ण की यह मुरली चुरा लेनी चाहिए क्योंकि इस मुरली ने गोपाल को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है और श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम सभी को भुला दिया है। कृष्ण घर के भीतर हों या बाहर, कभी क्षणभर को भी मुरली नहीं छोड़ते। कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होंठों पर और कभी कमर में खाँस लेते हैं। इस तरह से श्रीकृष्ण उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते। यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि वंशी ने कौन-सा मोहिनी मन्त्र श्रीकृष्ण पर चला दिया है, जिससे श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से उसके वश में हो गये हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपी कह रही है कि हे सजनी इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बाँध कर कैद कर लिया है।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. अलंकार - रूपक, अनुप्रास ।
2. भाषा सहज-सरल ब्रजी
3. शैली मुक्तक और गीतात्मक
4. छन्द-गेय पद।
5. रस श्रृंगार 
6. शब्दशक्ति- लक्षणा
7. गुण-माधुर्य ।

प्रश्न 7. ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। 
बृन्दावन गोकुल बने उपबन सघन कुंज की छाँहीं ॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत । 
माखन रोटी दह्यौ सजायो, अति हित साथ खवावत ॥ 
गोपी ग्वाले बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात । 
सूरदास धनि धनि ब्रजवासी, जिनस हित जदु-तात ॥ [ 2010, 11, 13, 17]

व्याख्या- श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। वृन्दावन और गोकुल के वन उपवन संभी मुझे याद आते रहते हैं। वहाँ के घने कुंजों की छाया को मैं भूल नहीं पाता। नन्द बाबा और यशोदा मैया को देखकर मुझे जो सुख मिलता था, वह मुझे रह-रहकर स्मरण हो आता है। वे मुझे मक्खन, रोटी और भली प्रकार जमाया हुआ दही कितने प्रेम से खिलाते थे ? ब्रज की गोपियों और ग्वाल-बालों के साथ खेलते हुए मेरे सभी दिन हँसते हुए बीता करते थे। ये सभी बातें मुझे बहुत याद आती हैं। सूरदास जी ब्रजवासियों को धन्य मानते हैं। और उनके भाग्य की सराहना करते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. अलंकार - अनुप्रास।
2. भाषा सरल सरस ब्रज
3. शैली मुक्त। 
4. छंद-गेय पद
5. रस-श्रृंगार
6. शब्द शक्ति अभिधा और व्यंजना ।
7. गुण-माधुर्य ।

प्रश्न 8. ऊधौ मन न भये दस बीस।।
एक हुतौ सो गयी स्याम सँग को अवराधै ईस ॥ 
इंद्री सिंथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस । 
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के सकल जोग के इस ।
सूर हमारें नंद नंदन बिनु और नहीं जगदीस।।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे मन दस-बीस नहीं हैं। सभी की तरह हमारे पास भी एक मन था और वह श्रीकृष्ण के साथ चला गया है अतः हम तुम्हारे बताये गये निर्गुण ब्रह्म की आराधना कैसे करें? अर्थात् बिना मन के ब्रह्म की आराधना सम्भव नहीं है। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गयी हैं और हमारी दशा बिना सिर के प्राणी जैसी हो गयी है। हमारे श्वास केवल इस आशा में चल रहे हैं कि श्रीकृष्ण मथुरा से अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएँगे। श्रीकृष्ण के लौटने की आशा के सहारे तो हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह लेंगी। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम तो कृष्ण के मित्र हो और सम्पूर्ण योग-विद्या तथा मिलन के उपायों के ज्ञाता हो। यदि तुम चाहो तो हमारा योग (मिलन) अवश्य करा सकते हो। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हम तुम्हें यह स्पष्ट बता देना चाहती हैं कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर हमारा कोई आराध्य नहीं है। हम तो उन्हीं की परम उपासिका हैं।।

काव्यगत सौन्दर्य:-
(1) शब्दशक्ति-व्यंजना।
(2) भाषा-सरल, सरस और मधुर ब्रज ।
(3) शैली-उक्त वैचित्र्यपूर्ण मुक्तक ।
(4) छन्द-गेय पद । 
(5) रस-श्रृंगार रस (वियोग ) ।
(6) अलंकार- अनुप्रास, श्लेष तथा उपमा।
(7) गुण-माधुर्य ।

प्रश्न 9. ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने। 
स्याम तुमहिं स्यौ को नहिं पठयौ, तुम हो बीच भुलाने ॥ 
ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हो, बात कहत न लजाने। 
बड़े लोग न बिबेक तुम्हारे ऐसे भए अयाने ॥
हमसो कही लई हम सहि के, जिय गुनि लेह सयाने।। 
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करो पहिचाने। 
साँच कहाँ तुमक अपनी सौ, दूझति बात निदाने ।
सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने ।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम यहाँ से वापस चले जाओ। हम तुम्हें समझ गयी हैं। श्याम ने तुम्हें यहाँ नहीं भेजा है। तुम स्वयं बीच से रास्ता भूलकर यहाँ आ गये हो। ब्रज की नारियों से योग की बात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आ रही है। तुम बुद्धिमान और ज्ञानी होगे, परन्तु हमें ऐसा लगता है कि तुममें विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें हमसे क्यों करते? तुम अच्छी प्रकार मन में विचार लो कि हमसे ऐसा कह दिया तो कह दिया, अब ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात न कहना हमने तो सहन भी कर लिया, कोई दूसरी गोपी इसे सहन नहीं करेगी। कहाँ तो हम अबला नारियाँ और कहाँ योग की नग्न अवस्था, अब तुम चुप हो जाओ और सोच-समझकर बात कहो हम तुमसे एक अन्तिम सवाल पूछती हैं, सच-सच बताना, तुम्हें अपनी कसम है, जो तुम सच न बोले। गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि जब श्रीकृष्ण ने उनको यहाँ भेजा था, उस समय वे थोड़ा-सा मुस्कराये थे या नहीं ? वे अवश्य मुस्कराये होंगे, तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने के लिए तुम्हें यहाँ भेजा है।
काव्यगत सौन्दर्य:-
1. गुण- माधुर्य ।
2. शब्दशक्ति-व्यंजना की प्रधानता।
3. भाषा- सरल सरस ब्रज ।
4. शैली मुक्तक।
5. छन्द-गेय पद।
6. रस श्रृंगार
7. अलंकार- अनुप्रास। 

प्रश्न 10. निर्गुण कौन देस की बसी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौह दे, बुझति साँच न हाँसी ॥ 
को है जनक, कौन है जननी, कोन नारि को दासी ? 
कैसे बरन, भेष है कैसो, किहिं रस में अभिलाषी ? 
पावैगौ पुनि कियो आपनो, जो रे करेगी गाँसी। 
सुनत मौन है रह्यो बावरी, सूर सबै मति नासी ॥ [ 2009, 12, 14, 17] 

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित करती हुई पूछती हैं कि हे उद्धव ! तुम यह बताओ तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का रहने वाला है? हम तुमको शपथ दिलाकर सच सच पूछ रही हैं, कोई हँसी-मजाक नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कि उस निर्गुण का पिता कौन है? उसकी माता का क्या नाम है? उसकी पत्नी और दासियों कौन-कौन हैं? उस निर्गुण ब्रह्म का रंग कैसा है। उसकी वेश-भूषा कैसी है और उसकी किस रस में रुचि है? गोपियाँ उद्धव को चेतावनी देती हुई कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि सही बात बताने में जरा भी छल-कपट करोगे तो अपने किये का फल अवश्य पाओगे। गोपियों के ऐसे प्रश्नों को सुनकर ज्ञानी उद्धव ठगे से रह गये और उनका सारा ज्ञान-गर्व अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. अलंकार - अनुप्रास, मानवीकरण तथा अन्योक्ति।
2. गुण-माधुर्य ।
3. भाषा सरल ब्रज।
4. शैली मुक्तक।
5. रस-वियोग और हास्य ।
6. छन्द - गेय पद।

प्रश्न 11. सँदेसी देवकी सों कहियौ ।
हो तो धाइ तिहारे सुत की, दया करत ही रहियौ ॥
जदपि टेव तुम जानति उनकी तऊ मोहिं कहि आवै ।। 
प्रात होत मेरे लाल लडैडौं, माखन रोटी भावे ॥ 
तेल उबटनी अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते । 
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि के न्हाते।
सूर पथिक सुन मोहिं रैनि दिन बढ्यो रहत उर सोच। 
मेरो अलक लड़ैतो मोहन, है है करत सँकोच ॥ [ 2009]

व्याख्या- यशोदा जी श्रीकृष्ण की माता देवकी को एक पथिक द्वारा सन्देश भेजती हैं कि कृष्ण तुम्हारा ही पुत्र है, मेरा पुत्र नहीं है । मैं तो उसका पालन-पोषण करने वाली मात्र एक सेविका हूँ। पर वह मुझे मैया कहता रहा है, इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यद्यपि तुम उसकी आदतें तो जानती ही होगी, फिर भी मेरा मन तुमसे कुछ कहने के लिए उत्कण्ठित हो रहा है। सवेरा होते ही मेरे लाड़ले श्रीकृष्ण को माखन रोटी अच्छी लगती है। वह तेल, उबटन और गर्म पानी को पसन्द नहीं करता था, अतः इन वस्तुओं को देखकर ही भाग जाता था। उस समय वह जो कुछ माँगता था, वही उसे देती थी, तब वह धीरे-धीरे नहाता था। सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा पथिक से अपने मन की दशा व्यक्त करती हुई कहती हैं कि मुझे तो रात-दिन यही चिन्ता सताती रहती है कि मेरा लाड़ला श्रीकृष्ण अभी तुमसे कुछ माँगने में बहुत संकोच करता होगा।

काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. गुण- माधुर्य ।
2. अलंकार - अनुप्रास तथा पुनरुक्तिप्रकाश ।
3. भाषा-सरल-सरस ब्रज
4. शैली मुक्तक ।
5. छन्द-गेय पद।
6. रसवात्सल्य।
7. शब्द शक्ति-व्यंजना। 

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