Lesson-2 तुलसीदास, वन पथ पर (PART-2)

UP Board Class-10 Hindi( काव्य/पद्य खण्ड) (PART-2) Lesson-2 वन-पथ पर(कवितावली), कवि-तुलसीदास

📔तुलसीदास📔

📚पाठ-2📚

🪔वन पथ पर🪔


1. पुरते निकसी रघुबीर बधू, धरि धीर दये मर्ग में डग है।
प्रदीप्ति भरी भाल कनी जल की, पुन: सुंदरी सुंदराधर वै ॥
फिर भी बूझते रहें- नो अब केटिक पर्णकुटी करिही कित है? तिय की लखी आतुरता पिय की अखियाँ अति चारु चली जल च्वै।(2016) 
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'काव्य-खण्ड में संकलित गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'कवितावली' से लिया गया है।
व्याख्या- राम, लक्ष्मण और सीता बड़े धीरज के साथ श्रृंगवेरपुर से आगे दो कदम ही चले थे कि सीताजी के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं और उनके सुन्दर होंठ थकान के कारण सूख गये। तब सीताजी ने अपने प्रियतम राम से पूछा- अभी हमें कितनी दूर और चलना पड़ेगा? कितनी दूरी पर पत्तों की कुटिया बनाकर रहेंगे? श्रीराम, सीताजी की व्याकुलता का कारण तुरन्त समझ गये कि वे बहुत थक चुकी हैं और विश्राम करना चाहती हैं। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर श्रीराम के सुन्दर नेत्रों से आँसू टपकने लगे।
काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. सीता के प्रति राम के प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
2. शैली- चित्रात्मक और मुक्तक।
3. छन्द- सवैया।
4. अलंकार - माथे पर पसीने की बूंदों के आने, होंठों के सूख जाने में स्वभावोक्ति तथा 'केतिक
पर्णकुटी करिहो कित' में अनुप्रास
5. शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना। 
6. रस-श्रृंगार
7. गुण- प्रसाद एवं माधुर्य ।

2. जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखी पिय छाँह घरीक है ठाढ़े। 
पछि पसेउ बयारि करौं, अरु पर्दे पखरिहों भूभुरि डाढ़े ॥ 
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि के बैठि बिलंब ल कंटक काढ़े । जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढे ॥ [ 2016]
व्याख्या-सीताजी श्रृंगवेरपुर से आगे चलने पर थक जाती हैं। वे विश्राम करने की इच्छा करती हैं। वे श्रीराम से कहती हैं कि लक्ष्मण पानी लेने गये हैं, इसलिए घड़ी भर किसी पेड़ की छाया में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। इतनी देर में आपका पसीना पोंछकर हवा कर देंगी तथा गर्म रेत पर चलने से आपके पाँव जल गये होंगे, उन्हें मैं धो दूँगी। श्री रामचन्द्र जी यह सुनकर समझ गये कि सीताजी थक चुकी हैं। और स्वयं विश्राम करने के लिए कहने में सकुची रही हैं। इसलिए वे बैठ गये और बड़ी देर तक (सीताजी को अधिक समय विश्राम देने के उद्देश्य से) बैठकर उनके पैरों में चुभे हुए काँटे निकालते रहे। अपने प्रति पति का ऐसा प्रेम देखकर सीताजी पुलकित हो गयीं और उनकी आँखों से प्रेम के आँसू टपकने लगे। ।
काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. गोस्वामी जी ने सीताजी और श्रीराम की भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान बहुत दक्षता से प्रस्तुत किया है।
2. भाषा ब्रज।
3. शैली मुक्तक। 
4. छन्द- सवैया।
5. रस- श्रृंगार |
6. अलंकार अनुप्रास ।
7. गुण-माधुर्य।
8. शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना। 

3. रानी मै जानी अजानी महा,पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है
राजहु काज अकाज न जान्यौ, काह्यो तिन को जिन कान कियो है
ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है ? आँखिन में सखि ! राखिबे जोग, इन्हें किमि के बनबास दियो है ? | [2010, 12, 15]
व्याख्या- वन-गमन के समय रास्ते में स्थित एक गाँव की स्त्रियाँ राम, लक्ष्मण और सीता के सौन्दर्य तथा कोमलता को देखकर रानी कैकेयी को अज्ञानी और वज्र तथा पत्थर से भी कठोर हृदय वाली नारी बताती है; क्योंकि सुकुमार राजकुमारों को वनवास देते समय तनिक भी दया न आयी। वे राजा दशरथ को भी विवेकहीन समझकर पत्नी के कहे अनुसार कार्य करने वाला ही समझती हैं और राजा में उचित-अनुचित के ज्ञान की कमी मानती हैं। उन्हें आश्चर्य है कि इन सुन्दर मूर्तियों से बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे ? हे सखी! ये तीनों तो आँखों में बसाने योग्य हैं, तब इन्हें किस कारण वनवास दिया गया है ?
काव्यगत सौन्दर्य:-
1. यहाँ कवि ने ग्रामीण बालाओं की श्रीराम के प्रति सहृदयता का सुन्दर चित्रण किया है।
2. भाषा ब्रज
3. शैली मुक्तक 
4. छन्द- सवैया।
5. रस करुण और श्रृंगार ।
6. अलंकार- जानी अजानी महा में अनुप्रास, काज अकोज में सभंगपद यमक ।
7. गुण- माधुर्य ।
8.शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना। 

4.सीस जटा, उर बाहू बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौहें। 
तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं ॥ 
सादर बारहिं बार सुभाय चितै, तुम त्यों हमरो मन मोहैं। 
पूछति ग्राम बधूसिय सों कहो साँवरे से, सखि रावरे को हैं?' ॥ [2012, 14, 18]
व्याख्या- ग्रामवधुएँ सीताजी से पूछ रही हैं कि जो सिर पर जटा धारण किये हुए हैं, जिनके वक्षस्थल और भुजाएँ विशाल हैं, नेत्र लाल हैं तथा भौंहें तिरछी सी हैं जो तरकस, धनुष और बाण धारण किये हुए इस वन मार्ग में बहुत शोभायमान हो रहे हैं, जो सहज-स्वाभाविक रूप में बड़े सम्मान के साथ बार बार तुम्हारी ओर देखते हुए हमारी मन भी आकर्षित कर रहे हैं। हे सखी! तुम हमें यह बताओ कि ये " सुन्दर साँवले रूप वाले (राम) तुम्हारे कौन लगते हैं?
काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. यहाँ श्रीराम के रूप और मुद्रा का सुन्दर वर्णन हुआ है।
2. भाषा- सुकोमल ब्रज। 
3. शैली- मुक्तक। 
4. छन्द - सवैया।
5. रस- श्रृंगार ।
6. अलंकार- सर्वत्र अनुप्रास।
7. गुण- माधुर्य ।
8. शब्दशक्ति- व्यंजना। 

5.सुनि सुन्दर बैन सुधारस साने, सयानी हैं जानकी जानी भली। तिरछे करि नैन दे सैन तिन्हें समुझाइ कछू मुसकाइ चली ॥ तुलसी तेहि ओसर सोह्रै सबै अवलोकति लोचन लाहु अली । अनुराग - तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली॥ [ 2009, 11, 13, 15, 17] 
व्याख्या- ग्रामवधुओं के अमृत जैसे मधुर वचनों को सुनकर चतुर सीताजी उनके मनोभाव को समझ गयीं। सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया, उन्हें मुख से कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उन्होंने स्त्रियोचित लज्जा के कारण केवल संकेत से ही राम के विषय में यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी के संकेत को समझकर सभी सखियाँ राम के सौन्दर्य को एकटक देखती हुई अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य का उदय हो गया हो और ग्रामवधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गयी हों।
काव्यगत सौन्दर्य:- 
1. प्रस्तुत पद में नाटकीयता और काव्य का सुन्दर योग है। 
2. भाषा - ब्रज। 
3. शैली- चित्रात्मक व मुक्तक।
4.छन्द- सवैया।
5. रस- श्रृंगार। 
6. अलंकार - अनुप्रास, अनुराग
7. गुण- माधुर्य।
8. शब्दशक्ति- व्यंजना । 

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