पंवार वंश | Panwar dynasty | History of Garhwal | Uttarakhand Ka itihas

पंवार वंश - गढ़वाल का इतिहास

  पंवार वंश
(गढ़वाल का इतिहास)

पंवार वंश के संस्थापक कनकपाल 

पंवार वंश की स्थापना - 888 ई. 

कनकपाल (888–898 ई.) 

कनकपाल धार नगरी गुजरात से आया था । 

कनकपाल ने, भानुप्रताप जो कि एक कत्यूरी शासक था कि बेटी से विवाह किया 

कनकपाल ने अपनी राजधानी चाँचदपुरगढ़ को बनाया था 

 

*कनकपाल के बाद राजाओं का नाम स्पष्ट रूप से नहीं मिलता है । 

सोनपाल (1243 ई. - 1250 ई.) 

इसने भिलंगघाटी को अपनी राजधानी बनाया था 

सोनपाल ने खसों को पराजित किया था 

सोनपाल को अजयपाल का पूर्ववर्ती शासक भी कहा जाता है 

 

लखनदेव या लषणदेव (1310ई. - 1330ई.) 

यह अपने नाम से मुद्राएं छापने वाला पहला पंवार शासक था । 

इस शासक की मुद्राएं पुराना दरबार संग्रहालय में रखी गई है । 

यह भिलंगघाटी का पहला स्वतंत्र शासक था ।


अनंतपाल द्वितीय (1333ई. - 1345ई.) 

इस शासक का अभिलेख धारशील से मिला है, जिसमें भिलंग घाटी राजधानी स्थानांरित करने का उल्लेख किया गया है ।

 

आसलदेव (1433ई. - 1442ई.) 

यह भिलंग घाटी से वापस राजधानी चाँदपुरगढ़ लाया था । 

 

जगतपाल (1414ई.- 1460ई.) 

इस शासक का अभिलेख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर से मिला है । (1455 ई. का) इसमें इसे रजबार कहां गया है । 

 

अजयपाल (1490 ई. - 1519 ई.) 

यह अनन्तपाल द्वितीय का पुत्र था । 

अजयपाल को पंवार वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है । 

अजयपाल का वर्ष 1491 ई. में कीर्तिचंद से युद्ध हुआ और इस युद्ध में अजयपाल हार गया 

वर्ष 1492 ई. में अजयपाल ने कीर्तिचंद से बदला लिया और देघाट को सीमा बनाया 

यह 52 गढ़ो को जीतने वाला एकमात्र पंवार शासक था 

अजयपाल सिंकदर लोदी का समकलीन था । 

इसने मापन के लिए धूलियापाथा (धर्मपाथा) की व्यवस्था की थी 

अजयपाल ने 1512 ई. में देवलगढ़ को राजधानी बनाया तथा 1517 ई. में श्रीनगर अपनी राजधानी बनाई ( श्रीनगर को गढ़वाल की दिल्ली कहा जाता है )

अजयपाल ने उप्पूगढ़ के शासक कफ्फू चौहान के साथ युद्ध किया इस युद्ध के बाद अजयपाल ने कफ्फू चौहान के लिए कहां- वीर तुम जीते, हम हारे । 

" मैं पशुओं में शेर की तरह व पक्षियों में गरूड़ कीतरह हूँ " यह कफ्फू चौहान ने कहा था । 

अजयपाल ने केन्द्रीय सेना का निर्माण किया था 

अजयपाल के गुरु का नाम सत्यनाथ था, सत्यनाथ की समाधि देवलगढ़ में है । 

कवि भरत ने अजयपाल को गढ़वाल का युधिष्ठिर कहा था । 

अजयपाल को गढ़वाल का अशोक, गढ़वाल का नेपोलियन, एक छत्र सम्राट, महात्मा तथा गढ़पाल आदि नामों से भी जाना जाता है । 

अजयपाल गोरनाथ पंत का अनुयायी था । 

ठाकुर शूरवीर सिहं के तांत्रिक विद्या ग्रंथ "सावरी ग्रंथ" में अजयपाल को आदिनाथ कहा गया है ।

अजयपाल ने कत्यूरियों को स्वर्ण सिंहासन छीना था । 

अजयपाल ने जात - पात व्यवस्था को खत्म करने के लिए सरोला ब्राह्मण की नियुक्ति की 

अजयपाल ने देवलगढ़ में राजराजेश्वरी पीठ की स्थापना की थी । 

अजयपाल ने श्रीनगर में कालिका मठ की भी स्थापना की थी । 

अजयपाल ने सैनिको को यथेष्ठ भूमि दान में दी । 



 

कल्याणपाल अथवा कल्याणशाह (1519 ई.- 1528 ई.) 

यह वंशावली में शाह की उपाधि धारण करने वाला पहला शासक था 

इसने बलभद्रशाह से पहले शाह की उपाधि धारण की थी ।

 

विजयपाल 

दापा (तिब्बत) पर आक्रमण करने वाला पहला पंवार शासक था और इस युद्ध में यह हार जाता है । 

 

सहजपाल (1547 ई.- 1574 ई.) 

यह अकबर का समकालीन था 

इसी के काल में अकबर ने गंगा का स्रोत पता करने के लिए एक अन्वेषक दल भेजा था 

सहजपाल को राजनीतिक चतुर और प्रजा को सुख देने वाला शासक कहा गया है 

सहजपाल के 5 अभिलेख देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर से प्राप्त हुए है । 

सहजपाल भीष्मचंद, कल्याणचंद तथा रुद्रचंद का समकालीन था 

मानोदय काव्य में सहजपाल को एक कुशल राजनीतिक एवं कुशल प्रशासक बताया गया है । 

 

बलभद्रशाह (1575 ई. - 1591 ई.) 

यह शाह की उपाधि धारण करने वाला पहला पंवार शासक था 

इसने अकबर के विद्रोहियों को पकड़ कर दिल्ली भेजा था और इसी समय से ही मुगलो और पंवार शासकों के बीच राजदूत भेजने की प्रथा शुरु हुई 

रामशाह / बलरामशाह नाम से इसका उल्लेख अकबरनाम में मिलता है । 

इसने रूद्रचंद से गवालदम का युद्ध सन् 1581 ई. में लड़ा, इस युद्ध में रूद्रचंद का सेनापति पुरुषोत्तम पंत मारा गया था । 

ग्वालदम के युद्ध के बाद ही इसने बहादुरशाह की उपाधि धारण की थी 

बलभद्रशाह की तुलना कवि देवराज द्वारा भीमसेन से की गयी है । 

इसी के काल में सर्वप्रथम चित्रशाला की नींव रखी गई ।


मानशाह (1591 ई. - 1611 ई.) 

इसके समकालीन चंद शासक रूद्रचंद व लक्ष्मीचंद थे । 

यह तिब्बत पर विजय प्राप्त करने वाला पहला पंवार शासक था 

इसने तिब्बत के शासक काकवामोर को पराजित किया था 

इसने दापा से 1000 स्वर्ण कलश लाकर गौरीमठ में स्थापित किए 

इसके समय लक्ष्मीचंद ने सात असफल आक्रमण किए, आठवें आक्रमण में गढ़वाल का सेनापति खतड़सिहं मारा गया, तब से कुमाऊँ में खतड़वा त्यौहार की शुरुआत हुई 

जीतू बगड़वाल मानशाह का समकालीन था, इसे भोट क्षेत्र का सेनापति बनाया गया था 

मानशाह का दरबारी कवि भरत था 

कवि भरत को जहाँगीर ने ज्योतिकराय की उपाधि दी थी 

कवि भरत ने ही पंवार काल के सबसे प्राचीन काव्य "मानोदय काव्य" की रचना संस्कृत भाषा में की थी

मानशाह ने अलकनंदा नदी के तट पर मानपुर नगर भी बसाया था 

नंदी मानशाह का सेनापति था । 

कालौ सिहं भण्डारी को मानशाह ने स्वर्णिम विजेता की उपाधि दी थी 

यूरोपियन यात्री विलियम फिंच मानशाह के समय गढ़वाल में आया था 

विलियम फिंच ने कहाँ गढ़वाल का शासक सोने की थाली में खाता है । 

मानशाह की तुलना अजयपाल एवं दानवीर कर्ण से की जाती है ।

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श्यामशाह (1611ई. - 1631 ई.) 

यह मुगलों (जहांगीर) से भेंट करने वाला पहला पंवार शासक था, इसने 1621 ई. में आगरा में जहांगीर से भेंट की थी 

जहांगीर ने इसे हाथी व घोड़े उपहार में दिए थे । 

श्यामशाह ने चंद वंश के राजा त्रिमलचंद को शरण दी थी 

श्यामशाह के गुरू शंकरदेव थे 

श्यामशाह को गढ़वाल का तुगलक, घमंडी राजा तथा विलासी राजा कहां जाता है । 

श्यामशाह के समय सन् 1624 ई. में जेसुएट पादरी अंतोनियों दे अन्द्रोदे आया था 

श्यामशाह के समय श्रीनगर के सबसे बड़े मंदिर केशोराय मठ की स्थापना सन् 1625 ई. में महीपतिशाह द्वारा की गई 

श्यामशाह की मृत्यु अलकनंदा नदी में डूबने की वजह से हुई थी 

श्यामशाह के समय सती प्रथा का प्रचलन था, इसके साथ इसकी 60 रानियां सती हुई थी 

श्यामशाह ने भी दापा पर सफल आक्रमण किया था 

श्यामशाह ने राजधानी में सामशाही बागान बनाया था 

 

महिपतिशाह (1631-1635 ई.) 

महिपतिशाह शाह त्रिमलचंद का समकालीन था 

इसके प्रमुख सेनापति लोदी रिखोला, माधोसिहं भंडारी तथ बनवारी दास थे । 

लोदी रिखोला को गढ़वाल का रखवाला कहां जाता है 

माधोसिहं भंडारी को गर्वभंजक कहा जाता है 

महीपतिशाह ने लोदी रिखोला के साथ दापा पर विजय प्राप्त की थी

दापा आक्रमण में भीम सिहं बर्तवाल को वहां पर गढ़वाली सेना का सेनानायक नियुक्त किया गया 

इसी के काल में माधोसिहं भंडारी ने मलेथा की गूल का निर्माण किया था 

इसने रोटी सूची प्रथा की शुरूआत की थी 

महिपतिशाह को गर्वभंजन भी कहा जाता है 

मोलाराम ने महिपतिशाह को महाप्रचण्ड भुजदंड कहा है 

मुगल लेखकों द्वारा महिपतिशाह को अक्खड़ राजा कहां गया है 

इसने नागा साधुओं की हत्याएँ करवा दी थी 

इसने मुगलो की अधीनता स्वीकार नहीं की थी 

इस शासक ने कुमाऊँ युद्ध में बलिदान दे दिया था 

 

पृथ्वीपतिशाह (1635 -1664 ई.) 

इसकी संरक्षिका रानी कर्णावती थी (1635-1640ई. तक) 

रानी कर्णावती को नाक काटी रानी के नाम से जाना जाता है, इसने मुगल सेनापति नवाजत खाँ को हराया था 

रानी कर्णावती की तुलना गोलकुंडा की रानी दुर्गावती से की जाती है 

रानी कर्णावती ने राजपुर नहर का निर्माण करवाया था 

कर्णावती ने देहरादून में करनपुर नामक शहर बसाया था  

रानी कर्णावती का महल नवादा, देहरादून में स्थित है 

इसके समय तुमुल के युद्ध (सतलज नदी के किनारे) में माधों सिहं भंडारी की मृत्यु हो जाती हैं 

पृथ्वीपतिशाह ने सन् 1650 ई. में मन्धाता प्रकाश से हाटकोटी की संधि की 

इसके समय ही गढ़वाली चित्रकला की शुरूआत हुई थी 

इसकी दूसरी राजधानी राजगढ़ी थी 

इसके समय सन् 1655 ई. में शाहजहां ने खलीतुल्ला के नेतृत्व में आक्रमण किया 

1658 ई. में पृथ्वीपतिशाह ने मुगल शहजादे सुलेमान को शरण को शरण दी थी 

इसने मेदनी शाह को देश निकाला दे दिया था 

इसने दिल्ली से आए चित्रकार हरदास और श्यामदास को आश्रय दिया 

इसने दून घाटी में पृथ्वीपुर की स्थापना की थी 

बाजबहादुर चंद इसका समकालीन था

✓अजय रावत नोट्स


फतेहपतिशाह (1664 ई. - 1716 ई.) 

फतेहपतिशाह की संरक्षिका महारानी कटोची थी 

यह नाथ पंत का अनुयायी था 

कवि मतिराम द्वारा इस शासक की तुलना शिवाजी से की गई है 

कवि मतिराम ने फतेहपतिशाह के शासन के काल को गढ़वाल का स्वर्णकाल भी कहां है 

कवि भूषण द्वारा रचित फतहप्रकाश में इस शासक को शील का सागर, हिंदुओं का रक्षक तथा उदंडों को दंड देने वाला शासक कहा गया है 

इसके दरबार में नवरत्न रहते थे 

प्रसिद्ध चित्रकार केहरदास व श्यामदास भी इसके दरबार में रहते थे 

इसने सिरमौर के राजा मेदनी प्रकाश को पराजित कर वहां के डाकुओं का दमन किया 

इसने बेराटगढ़ और कालसीगढ़ को जीता था 

सन् 1688 में पांवटा के समीप भंगाणी का युद्ध फतेहपतिशाह तथा गुरु गोबिंद सिंह साहिब के बीच हुआ, जिसका उल्लेख विचित्र नाटक में मिलता है 

इस शासक की अष्टकोणीय मुद्रा मिली है

फतहपतिशाह छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानता था 

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने अजयपाल और मानशाह के बाद फतेहपतिशाह को गढ़वाल राजवंश का तीसरा महान राजा कहा है । 

फतेहपतिशाह ने 1690 ई. में बैजनाथ को अपने अधिकार में कर लिया था 

 

उपेन्द्र शाह

इसकी मृत्यु बग्वाल दीपावली के दिन हुई थी 

 

प्रदीपशाह (1717 ई. - 1712 ई.) 

प्रदीपशाह की संरक्षिका माता कनकदेई थी 

इनके पिता दिलीपशाह थे । 

इसने चंद शासक कल्याणचंद चतुर्थ की सहायता 1743-44 ई. में की थी 

इसके समय गढ़वाल पर रोहिलों का आक्रमण सन् 1757 ई. व 1770 ई. में हुआ 

इसके मंत्री का नाम चंद्रमणि डंगवाल था, मंत्री ने श्रीनगर का मंगलेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था 

इसका दरबारी कवि मेधाकर शर्मा था, जिसने रामायण प्रदीप की रचना की थी 

यह अपनी राजधानी नवादा से धामूवाला लाया था 

इसने मोनाशाही तिमशा मुद्रा चलाई , इसका एक सिक्का लखनऊं संग्रहालय में अभी भी है 

इसकी मृत्यु लकवाग्रस्त होने से हो गई

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ललितशाह (1772 ई. - 1780 ई.) 

इसके समय में सन् 1775 ई. तथा 1778 ई. में सिक्खों के आक्रमण हुए 

इसको हर्षदेव जोशी ने कुमाऊं पर आक्रमण करने का आमंत्रण दिया था 

सन् 1779 ई. में बगवाली पोखर के युद्ध में इसने मोहनचंद को हराया था 

इसने अपने पुत्र प्रद्युम्नशाह को दीपचंद का दत्तक पुत्र बनाकर कुमाऊँ की गद्दी पर बैठाया 

इसकी मृत्यु 1780 ई. में मलेरिया के कारण दुलड़ी नामक स्थान पर हुई 

इसके पुत्र जयकृत शाह, प्रद्युम्नशाह, पराक्रम शाह तथा प्रीतमशाह थे । 

 

जयकृत शाह (1780 ई. - 1786 ई.) 

इसके समकालीन कुमाऊं का राजा इसका भाई प्रद्युम्नचंद था 

इसके समय में भी गढ़वाल पर सिक्खों ने आक्रमण किए, आक्रमण से बचने के लिए इसने सिक्खों को राखी कर देना स्वीकार किया 

इस शासक ने मोलाराम को 60 गाँव दान में दिए थे 

सन् 1785 ई. में इसने कपरौली के युद्ध में प्रद्युम्नचंद व पराक्रम शाह को हराया 

1785 ई. में हर्षदेव जोशी ने देवलगढ़ और श्रीनगर पर आक्रमण किया, जिसे जोशियाणी कांड के नाम से जाना जाता है 

इसकी मृत्यु रघुनाथ मंदिर, देवप्रयाग में हुई 

 

प्रद्युम्नशाह (1786 ई. - 1804 ई.) 

यह गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों जगह पर शासन करने वाला शासक था 

इसके समय 1791 ई. में गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण किया और 1792 ई. में गोरखाओं से लंगूरगढ़ की संधि की 

इसके समय सन् 1795 ई. (सम्वत् 1851-52) में भीषण अकाल पड़ा जिसे इकावनी बावनी के नाम से जाना जाता है

इसके शासनकाल में 8 सितम्बर 1803 को विनाशकारी भूकंप ने गढ़वाल को तहस - नहस कर दिया 

खुड़बुड़ा के युद्ध (14 मई 1804 ई.) में इसकी मृत्यु हो गयी 

 

सुदर्शन शाह (1815 - 1859 ई.) 

28 दिसंबर 1815 को इसने टिहरी रियासत की स्थापना की 

अंग्रजो द्वारा इसको टिहरी के राजा के रूप में मान्यता 4 मार्च, 1820 को मिली 

इसके समय सन् 1823 ई. में टिहरी का पहला भूमि बन्दोबस्त किया गया 

इसके समय 1824 ई. में रवांई परगना टिहरी में शामिल किया गया 

1848 में इसने टिहरी राजभवन (पुराना दरबार) का निर्माण करवाया 

सुदर्शन शाह के समय जौनसार में मौण मेले की शुरुआत हुई 

इसके दरबार में हरिदत्त शर्मा व गुमानी पंत राजकवि रहते थे 

इसके दरबार में चैतू व माणकू प्रसिद्ध चित्रकार भी रहते थे 

इसने 1840 मे विल्सन को 4000 रु. सलाना पर भूमि पट्टे पर दी थी 

1828 में सुदर्शन शाह ने सभासार ग्रंथ की रचना ब्रज भाषा में की 

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भवानी शाह (1859-1871ई.) 

यह अग्रेजो की सहायता से गद्दी पर बैठा 

भवानीशाह का राज्यभिषेक 15 अक्टूबर, 1859 को हुआ था 

सन् 1861 में रैम्जे ने इसी के समय 12 आना बीसी भमि व्यवस्था लागू की थी 

इसने देवप्रयाग में संस्कृत हिंदी पाठशाला 1862 ई. में खोली थी


प्रतापशाह (1871 - 1886 ई.) 

इसने अपना राज्यभिषेक भिलंगना नदी के तट पर करवाया था 

इसने टिहरी में प्रताप प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी 

सन् 1883 ई. में इसने प्रथम अंग्रेजी स्कूल खोला था 

इसने प्रताप जूनियर हाईस्कूल की स्थापना की 

प्रतापशाह ने टिहरी में पुलिस विभाग की स्थापना की 

इसने टिहरी में खैण, पाला तथा बिशाह नामक प्रथा का अंत किया 

इसने टिहरी - मंसूरी तथा टिहरी- श्रीनगर मोटरमार्ग बनवाया 

सन् 1877 ई. में इसने प्रतापनगर की स्थापना जलकूर नदी के तट पर की 

प्रतापशाह ने टिहरी में पहला खैराती दवाखाना खोला 

प्रतापशाह ने टिहरी को 22 पट्टियों में विभाजित किया था 

 

कीर्तिशाह (1887 – 1913 ई.) 

कीर्तिशाह की संरक्षिका माता गुलेरिया थी 

कीर्तिशाह ने अपनी शिक्षा मेयो कॉलेज, अजमेर से प्राप्त की थी 

कीर्तिशाह ने नेपाल के राजा जंगबहादुर की पुत्री से विवाह किया था 

इसने टिहरी में प्रताप हाईस्कूल की स्थापना सन् 1891 ई. में की थी 

इसके समय ही 1902 ई. में स्वामी रामतीर्थ का आगमन टिहरी में हुआ 

कीर्तिशाह ने स्वामी रामतीर्थ को जापान भेजा था 

स्वामी रामतीर्थ के लिए बनाए गए भवन का नाम गोल कोठी है

स्वामी रामतीर्थ ने 1906 ई. में भिलंगना नदी में जल समाधि ले ली थी 

तत्कालीन गर्वनर लैंसडाउन ने कीर्तिशाह की तारीफ की और कहा दूसरे राजाओं को कीर्तिशाह से सीख लेनी चाहिए 

कीर्तिशाह ने टिहरी में बिजली की व्यवस्था की 

इसने हिन्दी टाइपराइटर का भी अविष्कार किया था

सन् 1894 ई. में कीर्तिनगर की स्थापना की 

टिहरी में किसान कल्याण बैंक की स्थापना की 

इसने टिहरी में वैधशाला का निर्माण करवाया था 

सन् 1897 ई. में कीर्तिशाह ने टिहरी घंटाघर का निर्माण करवाया था 

इसने टिहरी में मदरसे की स्थापना भी की थी 

कीर्तिशाह ने टिहरी में पी. डब्ल्यू. डी. विभाग की स्थापना भी की 

अंग्रेजो द्वारा इसे 1898 ई. में सी. एस. आई. तथा सन् 1901 ई. में नाइट कमांडर की उपाधि दी गई 

सन् 1900 ई. में इंग्लैण्ड में इसे 11 तोपो की सलामी दी गई 

कीर्तिशाह ने 1909 ई. में हिबेट संस्कृत पाठशाला की स्थापना की थी 

इसने टिहरी में महिला अस्पताल जच्चा - बच्चा केन्द्र की स्थापना की 

इसने कन्या - विक्रय के विरूद्ध कानून बनाया था 

इसने बरा बेगार प्रथा समाप्त की थी 

कीर्तिशाह ने दास प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाया था 

इसने नवरात्रों में झोटा मारने की प्रथा को समाप्त किया था 

इस शासक ने इम्पीरियल सफर मैन नामक सेना बनाई थी 

1907 ई. में कैम्पबेल बोर्डिग हाउस की स्थापना की थी 

" कीर्तिशाह जैसा राजा भारत में नहीं देखा " यह कथन कैम्पबेल ने कहा था 

कीर्तिशाह की तुलना अकबर से की जाती है ।


नरेन्द्र शाह (1913 ई. - 1946 ई.) 

नरेन्द्रशाह की संरक्षिका राजमाता नेपोलिया थी 

इसके समय टिहरी की प्रथम जनगणना वर्ष 1921 ई. में हुई 

इसके समय ही टिहरी का अंतिम भूमि बंदोबस्त सन् 1924 में हुआ था 

इसने 1921 ई. में नरेन्द्रनगर की स्थापना की तथा वर्ष 1925 ई. में नरेन्द्रनगर को अपनी राजधानी बनाया 

इसने प्रताप इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना की 

इसके समय में 30 मई 1930 को तिलाड़ी कांड की घटना घटित हुई 

इसने टिहरी में हाईकोर्ट की स्थापना 1938 ई. में थी 

इसके समय टिहरी प्रजामण्डल की स्थापना 23 जनवरी 1939 ई. में देहरादून में हुई 

सन् 1942 ई. में इसने टिहरी में कन्या पाठशाला की स्थापना की 

इसने कीर्तिशाह की स्मृति में वर्ष 1933 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 1 लाख रू. दान में दिए थे 

इसने टिहरी में डोरी पैमाइश भू व्यवस्था शुरू करवायी 

इसने उच्च शिक्षा के लिए वर्ष 1920 ई. में छात्रवृत्ति निधि की स्थापना की 

1920 में एक कृषि बैंक की भी स्थापना की थी 

1923 में टिहरी में सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना की गई 


मानवेन्द्र शाह (1946-1949 ई.) 

यह अंतिम पंवार शासक था 

मानवेन्द्र शाह का राज्यभिषेक 5 अक्टूबर 1946 को हुआ था 

इसके समय में सकलाना विद्रोह 1947 में तथा कीर्तिनगर आंदोलन 1948 में हुआ 

1 अगस्त 1949 में टिहरी को संयुक्त राज्य का 50 वां जिला बना दिया गया 

मानवेन्द्र शाह 1957 से 2004 तक 8 बार टिहरी गढ़वाल से सांसद निर्वाचित हुए है 

मानवेन्द्र शाह की मृत्यु 5 जनवरी 2007 को हुई ।


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भारतीय लोक साहित्य- श्याम परमार

दिग्लोरी देट वाज गूजर देश - केएम मुंशी 

गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां- भक्तदर्शन

गढ़वाल का इतिहास, गढ़वाल वर्णन - हरिकृष्ण रतूड़ी 

गढ़वाल जाति प्रकाश- बालकृष्ण भट्ट शास्त्री

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